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Tuesday, May 17, 2011

बेमौसम रुठों को मनाए जाने की कवायद

सीहोर। वैसे तो रूठों को मनाने की कवायद का सबसे सही मौसम चुनाव होते हैं लेकिन बेमौसम जब बारिश हो सकती है तो रूठों को क्यों नहीं मनाया जा सकता। दरअसल कांग्रेस में हुए नेतृत्व परिवर्तन के बाद जिले में भी परिवर्तन को आवश्यक माना जा रहा है। इसी के चलते पुराने कांग्रेसी नई साज सज्जा कर स्वयं के लाइम लाइट में आ जाने को लेकर आश्वस्त हैं और इसी के चलते वह उन रूठों को मनाने में लगे हुए हैं जिन्हें उन्होंने कभी ना कभी कोई दर्द दिया था। इसे माने तो वह कहावत ही पुरानी नजर आती है कि तुम्ही ने दर्द दिया है दवा भी तुम्ही देना। अब तो यह कहा जाना चाहिए कि तुम्हें तो दर्द दिया था हमने अब दवा ऐसी दो कि ताज अपने ही सिर सजे और वह भी आपके ही सहयोग से।
एक नजर इधर भी ....बात जब रूठों को मनाने की चल ही रही है तो भाजपा भी इस काम में पीछे नहीं है। लेकिन भाजपा में रूठों को मनाने की कवायद प्रदेश की राजधानी में चल रही है लेकिन इन रूठों की सूची में सीहोर के नाम भी प्रमुखता से शामिल हैं। बस इन रूठों को मनाने का जिम्मा स्थानीय पदाधिकारियों को मिलने वाला है। यह वह रूठे हैं जो लगभग छह साल पहले दीदी के चक्कर में भाजपा का दामन छोड़ गए थे। हालांकि इस सूची में सबसे ऊपर भाजपा उनका नाम है जो कभी दीदी के खासों की गिनती में आते हैं। यह भी भाजपा में सम्मानजनक वापसी के इच्छुक हैं। सवाल उठता है कि क्या रघुनंदन शर्मा की तरह या प्रहलाद पटेल की तरह?
इंतजार तो इन्हें भी है....नगर पालिका चुनाव में किसी ने कुछ पाया तो किसी ने कुछ खोया। इसी चुनाव ने उन नेताओं की आशाओं पर भी तुषारापात किया था जो ब्लाक कांग्रेस अध्यक्ष की दौड़ में शामिल थे। क्या कहें भैया किस्मत भी एक ऐसी चीज ऊपर वाले ने बनाई है जो साथ दे तो वाह और साथ छोड़ दे तो आह ही मुंह से निकलती है। ऐसा ही वाकया ब्लाक कांग्रेस पद पर आसीन होने की उम्मीद लगाए नेताओं के साथ घटा है। अब नपा चुनाव के बाद बंधी आस की डोर प्रदेश नेतृत्व में हुए बदलाव ने खींच दी। जानकार मानते हैं कि पहले प्रदेश कार्यकारिणी का विस्तार होगा और बाद में जिले में नई नियुक्ति होगी इसके बाद ही खाली ब्लाक अध्यक्ष पद की शोभा बढ़ाने के लिए योग्य उम्मीदवार का चयन किया जाएगा। यह तो बातें हैं बातों का क्या...? देखते हैं आगे आगे होता है क्या?
खुसुर फुसुर शुरू ....चुनावों के दौर से निपटने के बाद राहत की सांस भी ठीक से नहीं ले पाए प्रशासनिक अमले के सामने जनगणना करने की चुनौती आ गई। शिक्षा विभाग के अमले ने इस चुनौती से निपटकर परीक्षाएं कराई तो अब मंडी के चुनाव नजदीक बताए जा रहे हैं। तारीख की घोषणा भर होना बाकी है। इसी आधार पर जिले की मंडियों के अध्यक्ष पदों से लेकर संचालक बनने वालों की जोड़ तोड़ शुरू हो गई है। पहले संपन्न हुई मंडी चुनाव की कार्रवाई ने जितने लोगों के दिलों में इच्छाएं जगाई थी अब उन इच्छाओं ने अपना ठिकाना बदल लिया है यानी कि अब वही इच्छाएं दूसरे दिलों में धड़क रही हैं। खासकर इच्छाओं ने ही कानों कान खुसुर पुसुर शुरू की है। इस खुसुर पुसुर से भी जानकार संभावित उम्मीदवारों के नामों के टोह ले रहे हैं। फिर भी नामांकन जमा करने वालों की में शामिल होने वाले नाम ही अंतिम कहे जाएंगे। लेकिन अनुमान के घोड़े दौड़ाए जाना भी तो जरूरी हैं।
राजनीति भारी साबित हुई  भारत जैसे धर्म प्राण देश में धर्म के आगे सब कुछ बौना नजर आता है। खासकर जिस देश की राजनीति भी धर्म के आधार पर चलती हो वहां राजनीति का धर्म पर भारी साबित होना किसी अजूबे जैसा लगता है। ऐसा ही अपवाद जिला मुख्यालय पर घटित हुआ।
१८५७ में आजादी की पहली लड़ाई हो या १९४७ में देश के बंटवारे की बात या फिर आजाद देश में १९८९ में धर्म के आधार पर कांग्रेस को सत्ता से दूर करने में मिली सफलता हो। धर्म हर क्रांति या बदलाव का आधार बना है। जब धर्म पर राजनीति भारी नजर आने लगे तो जानकारों का चौंकाना स्वभाविक है। वाकया कुछ इस प्रकार घटा कि एक ओर राजनीति हल्कों में जिले के गौरव कहे जाने वाले प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान का नगर आगमन हुआ तो दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय संत के रूप में सुविख्यात आसाराम बापू का नगर में प्रवेश हुआ। संयोग की बात यह है कि दोनो हस्तियों का नगर में प्रवेश लगभग एक ही समय में हुआ। प्रदेश के मुखिया का जिला मुख्यालय पर मुख्यमंत्री की गद्दी संभालने के बाद सातवां  दौरा था तो संत श्री का नगर में द्वितीय आगमन।
दोनों के मंच के सामने उपस्थित होने वाले जनसमुदाय की संख्या का अनुमान लगाएं तो संत के दर्शन करने वालों में महज डेढ़ दो सौ लोगों का समूह एकत्रित रहा लेकिन शिवराज की सभा सुनने वालों की संख्या हजारों में रही। जनसमूह की संख्या ने ही इस चर्चा को जन्म दिया कि राजनीति धर्म पर भारी नजर आ रही है। लेकिन तर्क देने वालों की भी कमी नहीं है जिन्होंने यह बताया कि सीएम की स्वागत की अपील करने वालों ने प्रचार प्रसार के मामले में संत श्री के अनुयायियों को पीछे छोड़ दिया था इस कारण भीड़ का अंतर नजर आया। मामले में एक तर्क यह भी चर्चा में रहा कि जितने लोग सीएम को सुनने गए थे सभी के पास यह भी सूचना थी कि संत आसाराम जी भी आज नगर में आ रहे हैं। पुलिस के वायरलेस पर चल रहे संदेश तो यही गवाही देते हैं। खैर बात है राजनीति के धर्म पर भारी होने की तो एक झलक यह भी देखें। सीएम अपनी सभा के दौरान जब स्थानीय जनप्रतिनिधियों की मांगों पर शासन के खजाने का मुंह खोल कर विकास की नई इबारत लिखे जाने की घोषणाओं पर घोषणाएं कर रहे थे तो शायद इतनी तालियां नहीं सुनाई दे रही थी जितनी हर्ष की किलकारियां संत श्री के आशीर्वाद मिलने पर बापू श्री के कार्यक्रम में सुनाई दे रही थी।जहां वह अपने हाथ से कुछ सामग्री भक्तों के बीच वितरण कर रहे थे और हर भक्त अपने को धन्य महसूस कर रहा था।  इस वाकये से इस बात को बल मिलता है के अभी भी धर्म ही राजनीति पर भारी है लेकिन दोनों आयोजनों में एकत्रित जनसमूह इस बात को बता रहा है कि राजनीति धर्म पर भारी होने लगी है।

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