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Tuesday, September 21, 2010

श्राध्द पक्ष में क्या करें


लेखक - पंडित शैलेश तिवारी नयन
पितृ पक्ष में हमें क्या  करना चाहिए और कैसे करना चाहिए...
वैसे तो पुरातन काल से ही श्राध्द पक्ष में पितरों के तर्पण का कार्य किया जाता रहा है। वर्तमान में श्राध्द पक्ष आते ही कई लोगों द्वारा यह जानने की कोशिशें की जाती हैं कि इस पितृ पक्ष में हमें क्य करना चाहिए और कैसे करना खहिए? इन सवालों का उसे तो सही जवाब मिल जाता है जो उचित माध्यम तक पहुंच जाता है लेकिन जो ऐसा नहीं कर पाता वह श्राध्द पक्ष में जो देखता आया हे या तो उसे करता हे अथवा जो समझ में आता है वह कर लेता है और जब कभी चर्चा होती है कि कि प्रकार श्राध्द कर्म किया जाए तो मन की कसक उभर आती है कि इसकी जानकारी लेने के बाद श्राध्द करना था। ऐसे ही लोगों की जिज्ञासा शांत करने का प्रयास किया जा रहा है।
ऐसी मान्यता है कि किसी खास पक्ष (श्राध्द पक्ष) में हमें अपने पूर्वजों के प्रति आदर, स मान तथा प्रेम प्रकट करने के लिए उनकी विशेष पूजा, ध्यान आदि करना चाहिए, जिसे श्राध्द पक्ष भी कहा जाता है। भारत में सदियों से श्राध्द की परंपरा रही है। पुत्रों द्वारा अपने पितरोंका श्रध्दापूर्वकध्यान करना तथा उनकी आत्मा की शांति एवं जीवन में त्याग आदि के लिए धन्यवाद देना ही श्राध्द है। जीते जी पिता की सेवा करना तथा मृत्यु पश्चात उनके कर्मो तथा उनके बलिदान को पूजनापुत्र का कर्तव्य है। ऐसा करने से पिता एवं पितर (पूर्वज आदि) सभी प्रसन्न रहते हैं तथा पुत्रों एवं आने वाली पीढी को कोई दोष व पाप नहीं लगता।
यदि पुत्रों को इस बात का अहसास हो कि परिस्थितिवश उनसे कभी भूल-चूक हो गई थी, जिसका उन्हें अफसोस है तथा समय रहते वह उनसे क्षमा-याचना नहीं कर सका, तो श्रध्दा अनुसार, वह अपने पितरोंको किसी भी माह में किसी भी दिन तर्पण, पूजा, व्रत, दान आदि किए बिना ही उन्हें याद कर सकता है। सच्ची श्रध्दा ही इसके लिए काफी है। श्राध्द का समय ऱ्भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से प्रारंभ होकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक चलने वाला यह सोलह दिवसीय पितरोंका तर्पण पितृ-पक्ष कहलाता है। इसी पक्ष में श्राध्द करने से पितरोंको तृप्ति प्राप्त होती है।
भारतीय संस्कृति के अनुसार  मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता, अनन्त जीवन शृंखला की एक कड़ी मृत्यु भी है, जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है, कामना की जाती है कि स बन्धित जीवात्मा का अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कारवान् बने । इस निमित्त जो कर्मकाण्ड किये जाते हैं, उनका लाभ जीवात्मा को यिा-कर्म करने वालों की श्रध्दा के माध्यम से ही मिलता है । इसलिए मरणोत्तर संस्कार को श्राध्दकर्म भी कहा जाता है । इसी श्राध्द कर्म को करने के लिए जिन वस्तुओं की जरूरत होती है उसका विवरण भी देने का प्रयास किया जा रहा है।
भारतीय संस्कृति के अनुसार  मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता, अनन्त जीवन शृंखला की एक कड़ी मृत्यु भी है, जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है, कामना की जाती है कि स बन्धित जीवात्मा का अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कारवान् बने । इस निमित्त जो कर्मकाण्ड किये जाते हैं, उनका लाभ जीवात्मा को यिा-कर्म करने वालों की श्रध्दा के माध्यम से ही मिलता है । इसलिए मरणोत्तर संस्कार को श्राध्दकर्म भी कहा जाता है । इसी श्राध्द कर्म को करने के लिए जिन वस्तुओं की जरूरत होती है उसका विवरण भी देने का प्रयास किया जा रहा है।
- तर्पण के लिए पात्र ऊँचे किनारे की थाली, परात, पीतल या स्टील की टैनियाँ (तसले, तगाड़ी के आकार के पात्र) आदि उपयुक्त रहते हैं । एक पात्र जिसमें तर्पण किया जाए, दूसरा पात्र जिसमें जल अर्पित करते रहें । तर्पण पात्र में जल पूर्ति करते रहने के लिए कलश आदि पास ही रहे । इसके अतिरिक्त कुश, चावल, जौ, तिल थोड़ी-थोड़ी मात्रा में रखें ।
- पिण्ड दान के लिए लगभग एक पाव गुँथा हुआ जौ का आटा । जौ का आटा न मिल सके, तो गेहूँ के आटे में जौ, तिल मिलाकर गूँथ लिया जाए । पिण्ड स्थापन के लिए पत्तलें , केले के पत्ते आदि । पिण्डदान सिंचित करने के लिए दूध-दही, मधु थोड़ा-थोड़ा रहे ।
- पंचबलि एवं नैवेद्य के लिए भोय पदार्थ । सामान्य भोय पदार्थ के साथ उड़द की दाल की टिकिया (बड़े) तथा दही इसके लिए विशेष रूप से रखने की परिपाटी है । पंचबलि अर्पित करने के लिए हरे पत्ते या पत्तल लें ।
-पूजन वेदी पर चित्र, कलश एवं दीपक के साथ एक छोटी ढेरी चावल की यम तथा तिल की पितृ आवाहन के लिए बना देनी चाहिए ।
पितृ- आवाहन-पूजन
इसके पश्चात् इस संस्कार के विशेष कृत्य आर भ किये जाएँ । कलश की प्रधान वेदी पर तिल की एक छोटी ढेरी लगाएँ, उसके ऊपर दीपक रखें । इस दीपक के आस-पास पुष्पों का घेरा, गुलदस्ता आदि से सजाएँ । छोटे-छोटे आटे के बने ऊपर की ओर बत्ती वाले घृतदीप भी किनारों पर सीमा रेखा की तरह लगा दें । उपस्थित लोग हाथ में अक्षत लेकर मृतात्मा के आवाहन की भावना करें और प्रधान दीपक की लौ में उसे प्रकाशित हुआ देखें । इस आवाहन का मन्त्र ? विश्वे देवास.. है । सामूहिक मन्त्रोच्चार के बाद हाथों में रखे चावल स्थापना की चौकी पर छोड़ दिये जाएँ । आवाहित पितृ का स्वागत-स मान षोडशोपचार या पञ्चोपचार पूजन द्वारा किया जाए ।
तपर्ण
आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरान्त तपर्ण किया जाता है । जल में दूध, जौ, चावल, चन्दन डाल कर तपर्ण कार्य में प्रयुक्त करते हैं । मिल सके, तो गंगा जल भी डाल देना चाहिए । तृप्ति के लिए तपर्ण किया जाता है । स्वगर्स्थ आत्माओं की तृप्ति किसी पदाथर् से, खाने-पहनने आदि की वस्तु से नहीं होती, क्योंकि स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है । मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर, केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है । सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी तृप्ति का विषय कोई, खाद्य पदार्थ या हाड़-मांस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते । सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अन्त:करण या वातावरण ही शान्तिदायक होता है ।
इस दृश्य संसार में स्थूल शरीर वाले को जिस प्रकार इन्द्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्म से उत्पन्न सुगन्ध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति का अनुभव करता है । उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र बिन्दु श्रध्दा है । श्रध्दा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं, श्रध्दा ही इनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है । इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्रध्दा एवं तपर्ण किये जाते हैं । इन यिाओं का विधि-विधान इतना सरल एवं इतने कम खर्च का है कि हर वर्ग इसे आसानी से का सके।  तपर्ण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग होता है । उसे थोड़ा सुगंधित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, फूल जैसी दो-चार मांगलिक वस्तुएँ डाली जाती हैं । कुशाओं के सहारे जौ की छोटी-सी अंजलि मन्त्रोच्चारपूवर्क डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं, किन्तु इस यिा के साथ आवश्यक श्रध्दा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए । यदि श्रध्दाञ्जलि इन भावनाओं के साथ की गयी है, तो तपर्ण का उद्देश्य पूरा हो जायेगा, पितरों को आवश्यक तृप्ति मिलेगी, किन्तु यदि इस प्रकार की कोई श्रध्दा भावना तपर्ण करने वाले के मन में नहीं होती और केवल लकीर पीटने के मात्र पानी इधर-उधर फैलाया जाता है, तो इतने भर से कोई विशेष प्रयोजन पूर्ण न होगा, इसलिए इन पितृ-कर्मो के करने वाले यह ध्यान रखें कि इन छोटे-छोटे यिा-कृत्यों को करने के साथ-साथ दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें, उनके सद्गुणों तथा सत्कर्मो के प्रति श्रध्दा व्यक्त करें । श्राध्द पक्ष में तर्पण का ही विशेष महत्व रहता है जिसे उक्त अनुसार करने की संक्षिप्त विधि बताने का प्रयास किया है। इस विधि मात्र से ही तर्पण का कार्य पूर्ण हो जाता है। इसके अलावा पिंड दान या उनका विसर्जन आदि कार्यक्रम भी श्रध्दालु संपन्न करते हैं जिन्हें सेपन्न कराने के लिए अपने क्षेत्र के पुरोहित का मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं लेकिन जो लोग स्वयं इस कार्य को करना चाहते हैं उनके लिए भी इस साइट पर मार्गदर्शन उपलब्ध कराया जाएगा।

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